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लोकतंत्र को दें आधार : करें चुनाव सुधार

BY : MB

दमी की जिन्दगी में पाँच साल का जो महत्व है वही महत्व देश की जिन्दगी में सौ साल का होता है।हमारे देश में पंच वर्षीय योजना की शुरुवात लोक सभा एवं विधान सभाओ की पांच साल से सह सम्बद्ध है।अर्थात पांच वर्ष की योजना केंद्र सरकार द्वारा पांच साल की लोकसभा के माध्यम से कार्यान्वन किये जाने की संकल्पना है। बस यहीं चूक हो गयी। एक सरकार ने अपनी सुविधा के हिसाब से पांच हिसाब की योजना बनाई और उसको लागू करवा दिया।और उसके बाद आने वाली सरकार ने अपने नेता और पार्टी की इच्छा अनुसार कुछ पुरानी नीतियो को लागू रखा और जो सुविधा जनक नहीं लगी उन्हें बदल दिया।ऐसा करने पर देश की दिशा में क्या परिवर्तन होगा,लगे हुए कितने पैसे खऱाब हो जायंगे,जनता के ऊपर इसका परिणाम क्या होगा इसकी चिंता करने का समय और इच्छा दोनों शक्ति की कमी हमारे नेताओ में रही है। जिसका नतीजा देश दिशा हीन होकर कहाँ जा रहा है इसकी जवाब देही भी शायद ही किसी की है। ऐसा कब तक ऐसे ही चलने दिया जाये? क्या कुछ किया जा सकता है।आइए इस पर विचार करे। देश गणतंत्र की 64वीं जयन्ती मनाने को तैयार है, अत:इस पर विचार करना आवशयक है ताकि हम आने वाली पीढ़ी के लिये जो भारत बनाए उस पर उसे गर्व हो, ताकि वह पढ़ लिख कर किसी तरह अच्छी नौकरी पाकर या विदेश में जा कर बसने का लक्ष्य न बनाने के बजाए देश में रहने और इसकी सेवा करने में गर्व महसूस करे। हमारे इस विषय में सुझाव है रू देश की अगले सौ सालो की जरूरतों का आंकलन किया जाये और उसको 50,25 और 5 वर्षो में प्राप्त किये जाने योग्य भागो में बाँट कर लागू करने की योजना बनायीं जाये।

देश की योजनाओं को दो हिस्सों में बाटा जाये ,एक वह जो नेताओ और पार्टी हितो के ऊपर देश हित में हो और नेताओ अथवा पार्टी के आने -जाने से उन नीतियों के प्रभावी कार्यान्वन प्रभावित न हो। जैसे देश की शिक्षा नीति क्या होगी, विदेश नीति अथवा रक्षा नीति क्या होगी अथवा बुनियादी ढांचे को बनाने की नीति क्या हो यह पार्टी अथवा नेताओ से प्रभावित न हो और यह अपने दीर्घ कालीन आवश्यकताओ के अनुसार चले ताकि एक निश्चित समय में हमारे देश की दीर्घ कालीन आवश्यतायें पूर्ण होना निश्चित हो जायें। बची हुए क्षेत्रो की नीतियां पांच वर्ष की आवश्यकताओ के हिसाब से बनाई जाये जिसको चुनी हुई सरकार अपनी नीतियों के हिसाब से बना कर लागू कर सके।

सरकार के द्वारा वस्तुओं के दाम बढ़ाये जाने अथवा अन्य किसी प्रकार भी परिवर्तित किये जाने की मियाद एक साल में एक बार ही हो। ताकि एक बार नीति निर्धारण हो जाने के बाद आम आदमी और देश का व्यापारी उन नियमों के हिसाब से अपनी योजना बना सके और जीवन यापन की व्यवस्था कर सके। साल में कई बार बीच -बीच में महंगाई बढ़ जाने से आम आदमी की कमाई अथवा वेतन वृद्धि नहीं होती अत: उसके लिए जीवन दुश्वार हो जाता है। इसलिए बार-बार वृद्धि से बचा जाना चाहिए।किसी आपात जनक स्थिति में संसद में तीन चौथाई बहुमत से उसका निर्णय किया जाये।

किसान से खऱीदे जाने का दाम साल में एक बार तय होता है तो फिर उसके खेत में लगने वाले सामानों जैसे खाद,डीजल इत्यादि के दामो में साल में कई बार वृद्धि करने से उसे निरंतर नुक्सान होगा और वह अपने काम को छोडऩे में ज्यादा रूचि रहेगी बजाय काम करने में यह अच्छा चिन्ह नहीं है। भारत देश जिसकी अर्थव्यस्था कृषि आधारित है किसानों को लगातार अनादर देश की ऐसी क्षति करेगा की उसकी पूर्ति मुश्किल है।

राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों में निर्णय लेने में आम जनता की राय इलेक्ट्रोनिक सुविधाओं का इस्तेमाल कर संसदीय क्षेत्रानुसार करवा कर सांसदों का अपने क्षेत्र की राय के हिसाब से ही समर्थन देना अनिवार्य हो। उदहारण के लिए एफ डी आइ के मामले में क्षेत्रीय पार्टियों ने जिस तरह का व्यहार किया वह वास्तव में जनतंत्र का अपमान है। ऐसे मुद्दों पर जनता की राय जानना आवाश्यक हो। और इसकी मोनीटरिंग चुनाव आयोग स्वयं करे। और सांसदों के लिए उनके क्षेत्र की जनता का निर्णय मानने की बाध्यता होनी चाहिए।

सरकार जब भी किसी चीज पर दाम बढाती है तो साथ ही बताना चाहिए की उसका बढ़ा हुआ पैसा कहा खर्च करंगे। और बढ़ी कमाई तथा खर्च दोनों में आपस में सम्बन्ध होना चाहिए।उदाहरण के लिए यदि सड़क पर नियम तोडऩे के लिए जुर्माना बढ़ाते है तो उसका निवेश सड़क के गढ़ों को पाटने में ,सड़क बत्तियो को ठीक करने में लगाया जाये।

जब भी सब्सिडी देने की घोषणा सरकार करती है तो उसे यह बताना चाहिए की इसकी भरपाई कहाँ से करने वाली है।किस तरह के अतिरिञ्चत टैक्स इत्यादि लगाये जाने प्रस्तावित है। ताकि आम जनता को पता चले की किस कीमत पर किसको लाभ पहुँचाई जा रही है। यह उचित नहीं की एक बार सब्सिडी दी जाये और फिर थोड़े दिन बाद घाटे के नाम पर दाम बढ़ाये जाये ये टैक्स लगाये जाये।

जब कोई पार्टी अपने चुनाव घोषणा पत्र में अर्थ सम्बन्धी घोषणायें करती है तो उसे भी यह बताना आवश्यक हो की खर्च का उपयोग कैसे होगा और धन कैसे आयेगा। जैसे किसान का कर्ज माफ़ किया जायेगा तो इस पैसे की व्यवस्था कैसे होगी।हम बैंक में घाटा करके इसी नीति कैसे बना सकते है। और फिर उसको पूरा करने लिए नए टैक्स लगाये ये दाम बढ़ाये यह उचित नहीं।

सभी उम्मीदवारों के लिए यह आवश्यक हो की वह जन प्रतिनिधि बने रहने के दौरान अपनी माली हैसियत के बारे में स्पष्ट घोषणा करे और बताये की उनकी कमाई में वृद्धि किस तरह अर्थात कितनी वृद्धि सम्पत्ति पुनर्मूल्यांकन के कारण हुयी है और कितनी कमाई के कारण।

यदि कोई उम्मीदवार अपनी सुरक्षा कारणों से एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ता है तो उसे अतरिक्त सीटों पर उपचुनाव करवाने का खर्च चुनाव आयोग के पास जमा करवाना चाहिए। यदि उम्मीदवार एक से अधिक स्थान से जीत जाता है तो छोड़े जाने वाली सीट पर उपचुनाव का खर्चा उस उम्मीदवार से लिया जाये न की सरकारी खजाने से। पिछले लोकसभा चुनाव में करीब 10000 करोड़ रुपये लोकसभा की 540-542 सीटो पर खर्च हुए थे। जिसके अनुसार करीब 20 करोड़ रुपये एक सीट का खर्च होता है। यदि यही चुनाव एक साथ न होकर अलग अलग होता है तो खर्च लगभग दूना अर्थात उपचुनाव में 40-50 करोड़ होता है। इतना पैसा बैंक में जमा करवा कर ही एक से ज्यादा सीट पर चुनाव लडऩे की अनुमति दी जाये। किसी उम्मीदवार को चुनाव में विजयी होने की सुरक्षा जनता के पैसे से नहीं दी जा सकती।

चुनाव में आचार संहिता का तोड़ा जाना एक आम बात है। ज्यादातर मामलों में चुनाव आयोग चेतावनी दे कर उम्मीदवार को छोड़ देता है।इस सम्बन्ध में नियम स्पष्ट होना चाहिए। एक बार चेतावनी देने के बाद दुबारा गलती होने पर उम्मीदवारी रद्द करने का अधिकार चुनाव आयोग के पास होना चाहिए और चुनाव आयोग इस पर सख्ती से अमल करे इसके लिए सभी पार्टियों के एक-एक प्रतिनिधियों का अधिकरण बने जो इस विषय पर बहुमत से अपनी राय निर्धारित दो-तीन दिन में दे और चुनावआयोग उसे सख्ती से लागू करे।

यदि कोई नेता किसी दूसरी पार्टी के बारे में आपत्तिजनक अथवा भद्दी टीका-टिप्पणी करता है तो उसे इसके लिए पर्याप्त सबूत देने चाहिये। इसके बिना यह कहना की मैंने तो आरोप लगा दिया है अब आरोपी इस को गलत सिद्ध करे अथवा अदालत में जाये उचित नहीं है। क्योंकि ज्यादातर मामलो में यह केवल बदनाम करने की साजिश होती है जो आम आदमी को गुमराह करने के लिए की जाती है।

सभी राजनैतिक पार्टियों द्वारा लिए जाने वाला पैसा व खर्च का ब्यौरा इनकी बैलेंस शीट में हो और वह वेब साईट पर आम आदमी के लिए उपलब्ध हो ताकि पच्चीस हजार से ज्यादा दान देने वाले का नाम और पता उसी तरह जांचा जा सके जैसे समाज सेवी संस्थाओं को दिया जाने वाला धन जांचा जाता है। दिए जाने वाले धन पर 20-25 प्रतिशत टैक्स वसूलना भी ठीक रहेगा। ताकि काले धन को चुनाव के माध्यम से सफेद करने के काम पर रोक लग सके।

जो पब्लिक लिमिटेड कंपनिया दान देती है यह केवल उन्ही को इजाजत होनी चाहिए जिन्होंने अपनी सालाना बैठक में ऐसा प्रस्ताव पास किया हो।यह केवल 2 प्रतिशत शेयर रखने वाले और मालिको की तरह कम्पनी चलाने की मन मर्जी से नहीं होना चाहिए।

जिन कंपनियो पर सरकारी देनदारी बाकी है उन्हें दान देने की इजाजत तब तक न दी जाये जब तक वह देनदारी दे नहीं दें अथवा उतना पैसा सरकारी खजाने में जमा न कर दे। ताकि सरकारी पैसा देने के बजाय दान देकर जीतने वाली पार्टी की सरकार बनने के बाद दान की दुहाई दे कर सरकारी खजाने को चूना न लगा सके।​

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