एशिया की तथाकथित सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी उत्तर प्रदेश के लिए बोझ बन गयी है। सच्चाई यह है कि इस तकनीकी विश्वविद्यालय के पास यह आंकड़ा भी नहीं है कि कुल कितने तकनीकी संस्थान उससे सम्बद्ध हैं। घोटालों की अम्मा और लूट की नानी जैसे है इस विश्वविद्यालय से सम्बद्ध निजी तकनीकी कॉलेज। कितना बड़ा मजाक है कि जब पिछले कई बर्षों से इस विश्वविद्यालय से जुड़े संस्थानों में 50% से भी अधिक सीटें खाली रह जाती हैं तो उनको कम क्यों नहीं किया जाता। अराजकता का आलम यह है कि कुल 1 लाख 67 हज़ार सीटों के लिए ली जाने वाली परीक्षा में इतने भी विद्यार्थी भाग नहीं लेते। लगभग 100% को पास कर दिया जाता है और उनमें से मात्र 21 हज़ार ने ही इस बार विभिन्न संस्थानों में प्रवेश लिया है। शेष 62 हज़ार प्रवेश खुले खेल यानि कॉलेजों द्वारा सीधे या दलालों के माध्यम से लिये गए। मजेदार बात ये कि देश के भावी इंजीनियर और प्रबंधक वो भी बन सकते हैं जिनके 12वी परीक्षा 40% नम्बरों के साथ उत्तीर्ण की हो। सच्चाई यह है कि ये 62 हज़ार प्रवेश अवैध हैं ओर महत्वाकांक्षी माँ बापो के अयोग्य बच्चों को झूठे सब्जबाग दिखा धोखा देने का सुनियोजित षड़यंत्र है। जिसको ऐ के टी यू प्रबंधन और निजी संस्थानों का सिंडिकेट चला रहा है शासन की स्वीकृति से। अंदाज लगाएं 62 हज़ार अयोग्य विद्यार्थी 4 साल तक औसतन 3 लाख रुपये प्रतिबर्ष फीस, आवास, भोजन आदि में खर्च करके इस ऐसी डिग्री पाएंगे जो न उनके लिए किसी काम की और न देश के लिए। यानि 18,600,000,000 रुपये सालाना की बर्बादी। अगर इसका चार गुना करे तो यह रकम 74,400,000,000 रुपये होती है। यानि 75 अरब रुपयों की खुली बर्बादी। देश भर में निजी तकनीकी शिक्षा संस्थानों की यही हालत है और देशवासी कई सौ अरब रुपयों को ऐसे ही बर्बाद कर रही है। सभी सर्वे और रिपोर्ट बता रही हैं कि देश के किसी भी प्रकार की डिग्री प्राप्त 90% युवा अयोग्य हैं, मगर सरकार इसे रोकने की जगह बढ़ाबा दे रही है। आखिर क्यों? ऐसे में कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठते हैं –
1) क्यों निजी संस्थानों में नीट जैसी एकल और पारदर्शी प्रवेश प्रक्रिया को लागू करते करते टाल दिया गया?
2) देश में विद्यार्थियों की रुचि, व्यक्तित्व, स्वभाव और सोच के अनुरूप पाठ्यक्रम बिशेष में प्रवेश दिलाने की व्यवस्था आज तक क्यों नहीं की गयी है?
3) निजी संस्थानों में सीधे प्रवेश के अविश्वसनीय मापदंडों का आधार क्या है?
4) जिन संस्थानों में प्रवेश नहीं हो रहे या कम संख्या में छात्र हैं, उन धोखे की दुकानों को क्यों नहीं बंद किया जा रहा?
5) निजी विश्विद्यालय और अधिक अपारदर्शी तरीकों से काम कर रहे हैं, ऐसे में निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों के गुणवत्तापूर्ण और पारदर्शी संचालन के लिए स्पष्ट आचारसंहिता क्यों नहीं बनाई जा रही?
6) उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए आवश्यक है कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की स्थिति को तीव्र गति से सुधारा जाए, मगर देश के कई लाख करोड़ रुपये सालाना बर्बाद हो जाने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें इस दिशा में कुछ भी जमीनी सुधार क्यों नहीं कर रही हैं?
कितना दुःखद है कि देशभर में लाखों बिल्डिंगों को शिक्षा संस्थान के नाम पर बनाकर खड़ा कर दिया गया है मगर उनकी क्षमता का एक चौथाई भी ठीक से इस्तेमाल नहीं होता। जो अध्यापक गण भर्ती किये गए हैं वो कुछ पढ़ा नहीं पाते क्योंकि अक्सर या तो उनको पढ़ाना नहीं आता या पढ़ने आने वाले विद्यार्थी उस ज्ञान को समझने के स्तर पर नहीं होते। ऐसे में लैब और पुस्तकालयों के लिए किया गया निवेश और कर्मचारी सब व्यर्थ हो जाते हैं। देश में 20 लाख करोड़ सालाना टर्न ओवर का शिक्षा तंत्र सिर्फ रिजल्ट कार्ड और बेकार की डिग्री बांटने के काम आ रहा है और हम कोल्हू के बैल से जुटे आम देशवासी पूर्ण मनोयोग से इस विषवृक्ष को सींच रहे हैं। धन्य है।
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया